25th dec,2014
26th Dec 2014
अनोखा आकर्षण
द्वारा
मधु राजन
पृथ्वी,
कैसा है ये आकर्षण
तेरा जलते सूरज से
जो नचा रहा है तुझको
तेरी ही एक धुरी पे
काट रही तू भी तो
सदियों से चक्कर उसका
बिन कहे-सुने-मांगे कुछ
पर दिल उसका ना पसीजा
क्या मिलना निर्मोही से
क्यों भुला ना उसको देती
वो भाव ना तेरा समझे
औ' उगले जाये अग्नि
पृथ्वी थोड़ा मुसकाई
जैसे वसंत ऋतु आई
बोली यह प्रेम की भाषा
ना है व्यापार किसी का
नहीं लेन-देन औ मोल-तोल
का कोई ठांव यहां है
मैं देख उसे सुख पाऊँ
अधिक ना कुछ आशा है
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