जीवन संध्या
द्वारा
मधु राजन
जीवन संध्या ने धीरे से
जब अपने पाँव बढाए
जीवन साये लम्बे हो
कर जैसे और गहराए
अरे, इतनी जल्दी!
मन पहले पहल कुछ चौंका
कितना कुछ करना है
बाकी सोच के ज्यों बौराया
पूरे कर उत्तरदायित्व
मैं जीवन को मनुहार रही थी
तभी अचानक चुपके-चुपके
यह कौन समय आ पहुंचा
जीवन की जीवंत दोपहरी
औ' संध्या का आगाह!
प्रकृति चक्र तो अपने नियमों
पर चलता है
कहाँ किसी उत्साहित
मन से उसको अंतर पड़ता है
और किसी के घबराने से
क्षण भर न है रुकता
तो फिर मेरे आश्चर्य से
भी था कुछ न होना!
आश्चर्य हुआ धीरे से मेरा
स्वीकृति में परिवर्तित
दिखा प्रकृति ने रंगों की
तूलिका बदल डाली है
काले सुन्दर बालों में
अब रुपहली झलकी है
मन तो अब भी उतना ही
उत्साहित, उच्छ्रंखल है
पर तन ने नव सीमाएं
निर्धारित कर डाली है
कदम अभी भी उसी
जोषोल्लास से उठते हैं
पर चलते चलते थोड़ा
अब धीमे पड़ जाते हैं
बच्चों के संग रोल रिवेर्सल
कब हुआ पता न पाया
अब वह हमको दुनिया की
नयी सीख सिखलाते
गुणी इसी को शायद
बचपन पुनरारंभ बताते!!!
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