Sunday, July 8, 2018

       काव्या कत्थक और दादी                       15-6-2018
पुलकित,आह्लादित दादी
थिरकत, ठुमकत पोती
स्नेह भरे ६६ के आगे
चंचल ६ वर्षीया छोटी

थिरके पाँव बनाके मुद्रा
सुन तबले पर पड़ती थाप 
गुरु की ता थेई थेई तत
चकरघिन्नी सी नाचे आप

दादी की स्नेहिल आँखों में 
नाच उठे स्वपन अनेक
१० की बाला, बने  किशोरी
नवयुवती K सजीली नेक

 फिर कत्थक से आप ही आप 
मन जाता कॉलेज की ओर
ग्रेजुएशन, डिग्री, पुरस्कार
लेती अपनी काव्या हर ओर
 (चितचोर)

कौन जाने तब तक
मैं धरती पे रहूँ या न
पर मेरा प्यारआशीर्वाद
सदा कवच बन होगा पास

 मधु राजन

Saturday, December 31, 2016



१ जनवरी २०१७

नए वर्ष का नया सूर्य
मधु राजन



                 




नए वर्ष का नया सूर्य
क्या ले कर आया है सौगातें
नयी कथा औ नयी व्यथा
दुखित पलों की और बारातें

या छोड़ के उसने चलन पुराना
नयी रीत को अपनाया है
जीवन में वह हम सबके
प्रेम भरा सुख-रस लाया है

झाँक के खिड़की से जो देखा
सूरज तो प्रति दिन जैसा है
धरती काट रही है चक्क्
उसे न कुछ लेना-देना है

यह तो मेरे अपने मन में 
कथा-व्यथा औ' सुख-रस धारा
तब क्यों न मैं चुनूं उमंगों 
से  मुस्काता जीवन प्यारा
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ 














Monday, November 7, 2016

मेरी कुछ प्रिय कविताएं

-१-
कृष्ण की चेतावनी 
रामधारी सिंह दिनकर 

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,

निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

२-

शक्ति और क्षमा / रामधारी सिंह "दिनकर"

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।


3- रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता .
कलम आज उनकी जय बोल
-------------------------------
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

4 हम पंछी उन्मुक्त गगन के

 शिवमंगल सिंह सुमन
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।

स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।


जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं,



सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं।



दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रसाद --



जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।


साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,

दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।

पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद --

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।


जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर?

मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर।

इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद --

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।


कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर?

कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर!

आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद --

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। 

Category:  hindi-poems

Friday, May 20, 2016

Niagara, Cave of Winds

जल प्रपात - निआगरा केव ऑफ़ विंड्स

मधु राजन




जल है जल है, जल ही जल है
बस और नहीं कोई कुछ है
सृष्टि में केवल दो ही जन
एक मैं औ दूजा जल प्रपात
आगे पीछे ऊपर नीचे
बस और नहीं कोई कुछ है


पाँचों इन्द्रियों से एक साथ
बस जल का ही अनुभव होना
कितना अद्भुत यह अनुभव है
मुग्ध मन भूल नहीं सकता

क्योंकि
मेधा भी इस अनुभव में
कुछ ऐसी है अभिभूत प्रिये
पाँचों  इन्द्रियों के साथ साथ
मानो मस्तक के सारे ही
विचारों  को एक ओर कर के
एक ध्यान बिंदु है जल प्रपात


 मन को भी मानो आभास हुआ
यह नहीं कोई साधारण सा
पर एक विलक्षण अनुभव है
इसको पूरा अनुभूत करो
आने दो जैसे आता है
तन-मन को ओत-प्रोत करो
विस्मृत, जीवन की आपा-धापी
भय, आशंका न कोई है
निआग्रा के रत्ती भर अंश मात्र ने
सराबोर किया तन-मन को है

उन कुछ बहुमूल्य क्षणों में ज्यों
पूरी सृष्टि सिमट - सिमट
हुयी व्याप्त दो चिन्हों में
एक मैं औ दूजा जल प्रपात

संभवतः है यह कुछ विचित्र
क्यों कि मैं नहीं अकेली हूँ
आगे पीछे, दायें बाएँ
पर्यटकों के हैं बड़े झुंड  

घिरी हुयी यों लोगों से
औ चलते सबके साथ-साथ
लगता मेरे अतिरिक्त न कोई है
एक मैं हूँ दूजा जल प्रपात

मैं हूँ जल है, जल ही जल है
बस और नहीं कोई कुछ है

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

Friday, April 29, 2016

धनुषकोटि या धनुषकोडि - क्या हुआ था एक भरे-पुरे नगर को?

To read this article in English please click the link at the bottom.


धनुषकोटि या धनुषकोडि - क्या हुआ था एक भरे-पुरे नगर को?
खँडहर को देख कर लगता है कभी इमारत बुलंद थी !
धनुषकोटि को देख कर अपने आप ही यह पंक्ति याद आ गयी. पम्बन द्वीप में श्री रामनाथ  स्वामी मंदिर से लगभग २०  किलोमीटर दूर, द्वीप के दक्षिण -पूर्व में स्थित है धनुषकोडि।  १९६४ के साइक्लोन के पूर्व यह मछुआरों का एक भरा-पूरा नगर था 

The small island, West of proposed route ( lower orange line) is Pamban island. Its eastern most side is Dhanushkodi 


पम्बन द्वीप के दक्षिण-पूर्व में है धनुषकोडि-रामनाथ स्वामी मंदिर से लगभग २० किलोमीटर की दूरी पर.



चेन्नई (उस समय मद्रास) से धनुषकोटि तक रेल सेवा थी जिसे बोट मेल कहते थे. तब यह रामेश्वरम नहीं जाती थी. धनुषकोटि की  जेट्टी (pier ) के पास स्टेशन था जहाँ से नाव में यात्रिओं के लिए  तलाईमन्नार जाने की भी सुविधा थी. तलाईमन्नार श्री लंका में है और धनुषकोटि से केवल १९ किलोमीटर है. इन दोनों स्थानों के बीच दोनों ही देशों से लोगों का खूब आवागमन होता था और नावों के द्वारा व्यापार  भी. 
धनुषकोटि में उस समय अपना रेल स्टेशन, अस्पताल, स्कूल, मंदिर, चर्च, धर्मशाला, बाजार, रिहाइशी घर इत्यादि सब था. खूब व्यापार होता था. परन्तु लगभग ४८ घंटे में यह सब कुछ तहस-नहस हो गया. उन ४८ घन्टों का आरम्भ  हुआ  २२-२३ दिसंबर १९६४ की भयावह रात से जब वहां एक भयंकर चक्रवात (cyclone) आया. तेज़ हवाएं २७०-२८०  किलोमीटर की रफ़्तार से चल रही थी. और कहते है सागर की लहरें ७-७ मीटर ऊंची थी.




 उस तूफ़ान के सामने मनुष्यों के बुद्धि-बल और प्यार से निर्मित पूरा का पूरा नगर नष्ट  हो गया. और तो और बोट मेल, चेन्नई से आने वाली प्रसिद्द  रेल बस धनुष कोटि  पहुँचने ही वाली थी. उस समय इसमें १०० से अधिक व्यक्ति गंतव्य  पर पहुँचने की आस लगाए होंगे. किन्तु विधि को तो कुछ और ही मंज़ूर था. चक्रवात की क्रूर हवाओं ने उन्हें  अपनी यात्रा पूरी नहीं करने दी. स्टेशन से जरा सी दूरी पर ही पूरी की पूरी रेल को उठा कर उफनते हुए सागर में फ़ेंक दिया. उन ४८ घंटों में रेल के बेबस यात्रिओं और धनुषकोटि के निवासियों पर क्या बीती होगी, सोचने से दिल दहल जाता है.

हमारे संसार की विडम्बना तो देखिये- धनुषकोटि की इतनी बड़ी त्रासदी आज एक टूरिज़्म केंद्र -पर्यटक स्थल-बना हुआ है!

हमें रामेश्वरम से धनुषकोटि जाने के लिए  प्रातः ६ बजे निकलना था. मैं और मेरे पति समय से पहले ही तैयार हो कर होटल रिसेप्शन के फोन का इंतज़ार करने लगे. वह जीप आने पर हमें इन्फॉर्म करने वाले थे. जब सवा छै बजे तक कोई फोन नहीं आया तो मैंने ही पूछा. पता चला ड्राइवर जीप ले कर साढ़े पांच बजे ही आ गया था पर वह हमारा कमरे का नंबर भूल गया था. दो कमरों में फोन करके वह पहले ही डिस्टर्ब कर चुके थे अतः उन्होंने फिर किसी और को  फोन न करने का निश्चय किया था. खैर हम लोग निकले. जीप को देख कर कई संशय और सवाल खड़े हो गए. इतनी पुरानी और टूटी-फूटी खस्ता हाल जीप कि पहले तो लगा कि वह स्टार्ट ही नहीं होगी. परन्तु भारतीय जुगाड़ जिंदाबाद! वह न केवल स्टार्ट हुयी बल्कि चली भी. नहीं, मर्सेडीज़-बी एम डब्लू के मुकाबले तो नहीं पर हाँ रिक्शा टेम्पो से तो तेज़ ही थी.

करीब १५-१६ किलोमीटर जाने के बाद जीप रुकी. अर्थात अब सड़क का अंत हो गया था और आगे बस रेत ही रेत थी. इसी कारण से हमको जीप से आने की सलाह दी गयी थी. जो लोग अपनी गाड़ियों से आ भी जाते हैं उनको यहाँ से किराए की दूसरी गाड़ी में बैठना पड़ता है जो यहाँ मिलती हैं- १५० रुपये हर यात्री के हिसाब से. हमारे ड्राइवर ने नीचे उतर कर कुछ जुगाड़ किया- मैंने उन्हें आगे के पहिए से पीछे कुछ जोड़ते देखा-और लीजिए हमारी जीप अब ४ व्हील ड्राइव बन गयी!

रेत में ही ट्रैक बन गए थे जिन पर जीप चल रही थी. यात्रा का यह हिस्सा थोड़ा रफ था. टेढ़े-मेढ़े रेत ट्रैक पर कभी-कभी तो लगता था जीप उलट ही न जाए. परन्तु हमारे ड्राइवर महाशय निर्विकार भाव से वीतराग बने चले जा रहे थे. और क्यों न हो. सम्भवतयः वह प्रतिदिन इसी रास्ते पर जाते होंगे और वह भी कई-कई बार. जो भी हो यह तो मानना पड़ेगा की उनका गाड़ी पर बहुत अच्छा कंट्रोल था. समुद्र में इस समय भाटे (लो टाइड) का समय था. जगह-जगह पर हमारी गाड़ी पानी के छोटे गड्ढों को पार करती थी. यह पिछले ज्वार (हाई टाइड) में छूट गया होगा.

ड्राइवर खण्डरों को इंगित कर बोलते जा रहे थे, "यह रेलवे स्टेशन था, यह अस्पताल था, इधर रेलवे के क्वाटर थे. इधर मंदिर तो उधर चर्च था". 

चर्च के दूसरी और हमारे ड्राइवर कम गाइड के अनुसार हिन्द महासागर है. इन अवशेषों को देख कर धनुषकोटि पर बीती अकथनीय त्रासदी से मन भर आया. ज्यादातर अवशेषों पर पेड़-पौधों और वनस्पतियों ने आधिपत्य जमा लिया है. एक तथ्य जिसे देख कर चक्रवात के  भयावह प्रकोप का अनुमान लग रहा था- जितने भी  अवशेष दिखे अधिकतर  उनकी छतें नहीं थी! 

थोड़ी ही देर में  हमारे सामने बंगाल की खाड़ी थी- निर्मल और शांत! ड्राइवर ने बहुत जोर दिया कि  यदि सागर में स्नान नहीं भी करना है तो कम से कम हाथ में जल ले कर अपने ऊपर छिड़क अवश्य लें. उनकी यह सलाह हमने प्रसन्नता पूर्वक मान ली. एक विचार ने मुझे गहरी देश भक्ति के भाव से ओत-प्रोत कर दिया. मैंने सोचा मै अपने भारत के एक दक्षिणतम स्थान पर खड़ी हुई हूँ. हालाँकि मुझे पहले  कन्याकुमारी और विवेकानंद शिला पर जाने का अवसर मिल चुका है जो कि भारत भू खण्ड के दक्षिणतम भाग हैं.

रास्ते में हम एक छोटे से मंदिर में गए. यहाँ एक टैंक के पानी में एक पत्थर तैर रहा (फ्लोट) था.हमें बताया गया कि इन्ही पत्थरों से श्री राम चन्द्र जी ने सागर पर रामसेतु का निर्माण किया था. मैंने छू कर देखा. पत्थर वास्तव में फ्लोट कर रहा था और नीचे दबाने से पुनः आप ही आप ऊपर आ जाता था. हाँ, मेरे पास कोई तरीका नहीं था निश्चय करने का कि वह सच में पत्थर ही है या पत्थर जैसा दिखने वाला कुछ और.


पास में एक व्यक्ति एक छोटा सा स्टाल लगा कर सीपों कि बानी वस्तुएं बेच रहा था- गुड़िया, ब्रेसलेट्स, माला, कान में पहनने की चीज़ें, शंख, मूंगे के छोटे आभूषण वगैरह. उनका दावा था कि सारी वस्तुएं जेन्युइन है और सागर से निकली हैं. वे सागर से निकले असली थे या नहीं, मैंने कुछ वस्तुएं यादगार के लिए खरीद ली. जो भी दाम बताया वह मानते हुए. असल में मेरे मन में विचार आ रहा था कि मैं इन्हे दाम से कुछ अधिक पैसा दे दूँ. क्योंकि इस छोटी सी दुकान से इनको कुछ ख़ास आमदनी तो होती नही होगी. और कम से कम जितनी देर मैं वहां पर थी कोई इक्का-दुक्का पर्यटक ही दुकान की ओर आया! परन्तु यहाँ आश्चर्यचकित होने की बारी मेरी थी. जब बिल के अनुसार मैंने उन्हें एक बड़ा नोट दिया तो मेरे यह कहने से पहले कि  आप पूरा रख लो, उन्होंने मुझे ५० रुपये ज्यादा लौटा दिए यह कहते हुए की "आप हमारे पहले ग्राहक हो. बोहनी टाइम.." हमारे देश के comparatively गरीब कहे जाने वाले इन बड़े दिल वालों को मेरा नमन!
एक छोटी सी मयथोलोजिकल  कहानी:
इस स्थान का नाम धनुषकोडी  क्यों पड़ा इसकी भी एक कहानी है. युद्ध के पश्चात जब श्री रामचन्द्र जी सीता अवं अपनी सेना के साथ धनुषकोडी वापस पहुंचे तब विभीषण-रावण के भाई एवं लंका के नए राजा- ने राम से विनती की कि रामसेतु को तोड़ दिया जाए. कारण - ताकि कोई और सेना कभी लंका पर आक्रमण न कर सके. राम ने उनकी विनती स्वीकारते हुए अपने धनुष की एक तरफ की नोक से पुल  के पत्थर को छुआ और वह टूट गया. तमिल भाषा में कोडी का अर्थ है कोना. क्योंकि धनुष के एक कोने से श्री राम ने रामसेतु को तोड़ा  इस कारण  इस स्थान का नाम धनुषकोडी  पड़ गया.  

                                                 ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~