Friday, April 29, 2016

धनुषकोटि या धनुषकोडि - क्या हुआ था एक भरे-पुरे नगर को?

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धनुषकोटि या धनुषकोडि - क्या हुआ था एक भरे-पुरे नगर को?
खँडहर को देख कर लगता है कभी इमारत बुलंद थी !
धनुषकोटि को देख कर अपने आप ही यह पंक्ति याद आ गयी. पम्बन द्वीप में श्री रामनाथ  स्वामी मंदिर से लगभग २०  किलोमीटर दूर, द्वीप के दक्षिण -पूर्व में स्थित है धनुषकोडि।  १९६४ के साइक्लोन के पूर्व यह मछुआरों का एक भरा-पूरा नगर था 

The small island, West of proposed route ( lower orange line) is Pamban island. Its eastern most side is Dhanushkodi 


पम्बन द्वीप के दक्षिण-पूर्व में है धनुषकोडि-रामनाथ स्वामी मंदिर से लगभग २० किलोमीटर की दूरी पर.



चेन्नई (उस समय मद्रास) से धनुषकोटि तक रेल सेवा थी जिसे बोट मेल कहते थे. तब यह रामेश्वरम नहीं जाती थी. धनुषकोटि की  जेट्टी (pier ) के पास स्टेशन था जहाँ से नाव में यात्रिओं के लिए  तलाईमन्नार जाने की भी सुविधा थी. तलाईमन्नार श्री लंका में है और धनुषकोटि से केवल १९ किलोमीटर है. इन दोनों स्थानों के बीच दोनों ही देशों से लोगों का खूब आवागमन होता था और नावों के द्वारा व्यापार  भी. 
धनुषकोटि में उस समय अपना रेल स्टेशन, अस्पताल, स्कूल, मंदिर, चर्च, धर्मशाला, बाजार, रिहाइशी घर इत्यादि सब था. खूब व्यापार होता था. परन्तु लगभग ४८ घंटे में यह सब कुछ तहस-नहस हो गया. उन ४८ घन्टों का आरम्भ  हुआ  २२-२३ दिसंबर १९६४ की भयावह रात से जब वहां एक भयंकर चक्रवात (cyclone) आया. तेज़ हवाएं २७०-२८०  किलोमीटर की रफ़्तार से चल रही थी. और कहते है सागर की लहरें ७-७ मीटर ऊंची थी.




 उस तूफ़ान के सामने मनुष्यों के बुद्धि-बल और प्यार से निर्मित पूरा का पूरा नगर नष्ट  हो गया. और तो और बोट मेल, चेन्नई से आने वाली प्रसिद्द  रेल बस धनुष कोटि  पहुँचने ही वाली थी. उस समय इसमें १०० से अधिक व्यक्ति गंतव्य  पर पहुँचने की आस लगाए होंगे. किन्तु विधि को तो कुछ और ही मंज़ूर था. चक्रवात की क्रूर हवाओं ने उन्हें  अपनी यात्रा पूरी नहीं करने दी. स्टेशन से जरा सी दूरी पर ही पूरी की पूरी रेल को उठा कर उफनते हुए सागर में फ़ेंक दिया. उन ४८ घंटों में रेल के बेबस यात्रिओं और धनुषकोटि के निवासियों पर क्या बीती होगी, सोचने से दिल दहल जाता है.

हमारे संसार की विडम्बना तो देखिये- धनुषकोटि की इतनी बड़ी त्रासदी आज एक टूरिज़्म केंद्र -पर्यटक स्थल-बना हुआ है!

हमें रामेश्वरम से धनुषकोटि जाने के लिए  प्रातः ६ बजे निकलना था. मैं और मेरे पति समय से पहले ही तैयार हो कर होटल रिसेप्शन के फोन का इंतज़ार करने लगे. वह जीप आने पर हमें इन्फॉर्म करने वाले थे. जब सवा छै बजे तक कोई फोन नहीं आया तो मैंने ही पूछा. पता चला ड्राइवर जीप ले कर साढ़े पांच बजे ही आ गया था पर वह हमारा कमरे का नंबर भूल गया था. दो कमरों में फोन करके वह पहले ही डिस्टर्ब कर चुके थे अतः उन्होंने फिर किसी और को  फोन न करने का निश्चय किया था. खैर हम लोग निकले. जीप को देख कर कई संशय और सवाल खड़े हो गए. इतनी पुरानी और टूटी-फूटी खस्ता हाल जीप कि पहले तो लगा कि वह स्टार्ट ही नहीं होगी. परन्तु भारतीय जुगाड़ जिंदाबाद! वह न केवल स्टार्ट हुयी बल्कि चली भी. नहीं, मर्सेडीज़-बी एम डब्लू के मुकाबले तो नहीं पर हाँ रिक्शा टेम्पो से तो तेज़ ही थी.

करीब १५-१६ किलोमीटर जाने के बाद जीप रुकी. अर्थात अब सड़क का अंत हो गया था और आगे बस रेत ही रेत थी. इसी कारण से हमको जीप से आने की सलाह दी गयी थी. जो लोग अपनी गाड़ियों से आ भी जाते हैं उनको यहाँ से किराए की दूसरी गाड़ी में बैठना पड़ता है जो यहाँ मिलती हैं- १५० रुपये हर यात्री के हिसाब से. हमारे ड्राइवर ने नीचे उतर कर कुछ जुगाड़ किया- मैंने उन्हें आगे के पहिए से पीछे कुछ जोड़ते देखा-और लीजिए हमारी जीप अब ४ व्हील ड्राइव बन गयी!

रेत में ही ट्रैक बन गए थे जिन पर जीप चल रही थी. यात्रा का यह हिस्सा थोड़ा रफ था. टेढ़े-मेढ़े रेत ट्रैक पर कभी-कभी तो लगता था जीप उलट ही न जाए. परन्तु हमारे ड्राइवर महाशय निर्विकार भाव से वीतराग बने चले जा रहे थे. और क्यों न हो. सम्भवतयः वह प्रतिदिन इसी रास्ते पर जाते होंगे और वह भी कई-कई बार. जो भी हो यह तो मानना पड़ेगा की उनका गाड़ी पर बहुत अच्छा कंट्रोल था. समुद्र में इस समय भाटे (लो टाइड) का समय था. जगह-जगह पर हमारी गाड़ी पानी के छोटे गड्ढों को पार करती थी. यह पिछले ज्वार (हाई टाइड) में छूट गया होगा.

ड्राइवर खण्डरों को इंगित कर बोलते जा रहे थे, "यह रेलवे स्टेशन था, यह अस्पताल था, इधर रेलवे के क्वाटर थे. इधर मंदिर तो उधर चर्च था". 

चर्च के दूसरी और हमारे ड्राइवर कम गाइड के अनुसार हिन्द महासागर है. इन अवशेषों को देख कर धनुषकोटि पर बीती अकथनीय त्रासदी से मन भर आया. ज्यादातर अवशेषों पर पेड़-पौधों और वनस्पतियों ने आधिपत्य जमा लिया है. एक तथ्य जिसे देख कर चक्रवात के  भयावह प्रकोप का अनुमान लग रहा था- जितने भी  अवशेष दिखे अधिकतर  उनकी छतें नहीं थी! 

थोड़ी ही देर में  हमारे सामने बंगाल की खाड़ी थी- निर्मल और शांत! ड्राइवर ने बहुत जोर दिया कि  यदि सागर में स्नान नहीं भी करना है तो कम से कम हाथ में जल ले कर अपने ऊपर छिड़क अवश्य लें. उनकी यह सलाह हमने प्रसन्नता पूर्वक मान ली. एक विचार ने मुझे गहरी देश भक्ति के भाव से ओत-प्रोत कर दिया. मैंने सोचा मै अपने भारत के एक दक्षिणतम स्थान पर खड़ी हुई हूँ. हालाँकि मुझे पहले  कन्याकुमारी और विवेकानंद शिला पर जाने का अवसर मिल चुका है जो कि भारत भू खण्ड के दक्षिणतम भाग हैं.

रास्ते में हम एक छोटे से मंदिर में गए. यहाँ एक टैंक के पानी में एक पत्थर तैर रहा (फ्लोट) था.हमें बताया गया कि इन्ही पत्थरों से श्री राम चन्द्र जी ने सागर पर रामसेतु का निर्माण किया था. मैंने छू कर देखा. पत्थर वास्तव में फ्लोट कर रहा था और नीचे दबाने से पुनः आप ही आप ऊपर आ जाता था. हाँ, मेरे पास कोई तरीका नहीं था निश्चय करने का कि वह सच में पत्थर ही है या पत्थर जैसा दिखने वाला कुछ और.


पास में एक व्यक्ति एक छोटा सा स्टाल लगा कर सीपों कि बानी वस्तुएं बेच रहा था- गुड़िया, ब्रेसलेट्स, माला, कान में पहनने की चीज़ें, शंख, मूंगे के छोटे आभूषण वगैरह. उनका दावा था कि सारी वस्तुएं जेन्युइन है और सागर से निकली हैं. वे सागर से निकले असली थे या नहीं, मैंने कुछ वस्तुएं यादगार के लिए खरीद ली. जो भी दाम बताया वह मानते हुए. असल में मेरे मन में विचार आ रहा था कि मैं इन्हे दाम से कुछ अधिक पैसा दे दूँ. क्योंकि इस छोटी सी दुकान से इनको कुछ ख़ास आमदनी तो होती नही होगी. और कम से कम जितनी देर मैं वहां पर थी कोई इक्का-दुक्का पर्यटक ही दुकान की ओर आया! परन्तु यहाँ आश्चर्यचकित होने की बारी मेरी थी. जब बिल के अनुसार मैंने उन्हें एक बड़ा नोट दिया तो मेरे यह कहने से पहले कि  आप पूरा रख लो, उन्होंने मुझे ५० रुपये ज्यादा लौटा दिए यह कहते हुए की "आप हमारे पहले ग्राहक हो. बोहनी टाइम.." हमारे देश के comparatively गरीब कहे जाने वाले इन बड़े दिल वालों को मेरा नमन!
एक छोटी सी मयथोलोजिकल  कहानी:
इस स्थान का नाम धनुषकोडी  क्यों पड़ा इसकी भी एक कहानी है. युद्ध के पश्चात जब श्री रामचन्द्र जी सीता अवं अपनी सेना के साथ धनुषकोडी वापस पहुंचे तब विभीषण-रावण के भाई एवं लंका के नए राजा- ने राम से विनती की कि रामसेतु को तोड़ दिया जाए. कारण - ताकि कोई और सेना कभी लंका पर आक्रमण न कर सके. राम ने उनकी विनती स्वीकारते हुए अपने धनुष की एक तरफ की नोक से पुल  के पत्थर को छुआ और वह टूट गया. तमिल भाषा में कोडी का अर्थ है कोना. क्योंकि धनुष के एक कोने से श्री राम ने रामसेतु को तोड़ा  इस कारण  इस स्थान का नाम धनुषकोडी  पड़ गया.  

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6 comments:

  1. दीदी धनुषकोडी के बारे में लिखा यह लेख पौराणिक,भौगोलिक और धार्मिक सभी दृष्टि से अत्यंत ज्ञान वर्धक है। शैली में पर्यटक की नजर के साथ साथ स्वाभाविक प्रवाह है.ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम स्वयं वहां पर हों.इसे कह सकते हैं सरलतापूर्ण विशद वर्णन ।

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  2. Simplicity is the hallmark of this narrative which is also quite informative.The easy flow with which the piece is written, and the underlying sense of humour are remarkable.

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  3. Thanks Poornima. I am so glad you read it.

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  4. मधु जी बहुत बढ़िया लगा. आप धनुषकोटि कब गयीं थी? हम जब गए थे तो विभीषण मंदिर के बाद कोई जाने को तैयार ही नहीं था. जीप का इंतज़ाम किसने किया था? होटल वाले ने?

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    1. धन्यवाद. अब धनुषकोडि जाने के लिए जीप और टैक्सी ही नहीं ऑटो रिक्शा भी आसानी से मिल जाता है.

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